Thursday, July 17, 2008

गुर पूनम महोत्सव












गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ध्यानमूलं गुरुर्मूर्ति पूजामूलं गुरोः पदम् मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा अखंडमंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव ब्रह्मानंदं परम सुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्षयम् एकं नित्यं विमलं अचलं सर्वधीसाक्षीभूतम् भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि

मानसिक POOJAN


ऐसे महिमावान श्री सदगुरुदेव के पावन चरणकमलों का षोड़शोपचार से पूजन करने से साधक-शिष्य का हृदय शीघ्र शुद्ध और उन्नत बन जाता है मानसपूजा इस प्रकार कर सकते हैं
मन ही मन भावना करो कि हम गुरुदेव के श्री चरण धो रहे हैं … सर्वतीर्थों के जल से उनके पादारविन्द को स्नान करा रहे हैं खूब आदर एवं कृतज्ञतापूर्वक उनके श्रीचरणों में दृष्टि रखकर … श्रीचरणों को प्यार करते हुए उनको नहला रहे हैं … उनके तेजोमय ललाट में शुद्ध चन्दन से तिलक कर रहे हैं … अक्षत चढ़ा रहे हैं … अपने हाथों से बनाई हुई गुलाब के सुन्दर फूलों की सुहावनी माला अर्पित करके अपने हाथ पवित्र कर रहे हैं … पाँच कर्मेन्द्रियों की, पाँच ज्ञानेन्द्रियों की एवं ग्यारवें मन की चेष्टाएँ गुरुदेव के श्री चरणों में अर्पित कर रहे हैं …
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैवाबुध्यात्मना वा प्रकृतेः स्वभावात् करोमि यद् यद् सकलं परस्मैनारायणायेति समर्पयामि
शरीर से, वाणी से, मन से, इन्द्रियों से, बुद्धि से अथवा प्रकृति के स्वभाव से जो जो करते करते हैं वह सब समर्पित करते हैं हमारे जो कुछ कर्म हैं, हे गुरुदेव, वे सब आपके श्री चरणों में समर्पित हैं … हमारा कर्त्तापन का भाव, हमारा भोक्तापन का भाव आपके श्रीचरणों में समर्पित है इस प्रकार ब्रह्मवेत्ता सदगुरु की कृपा को, ज्ञान को, आत्मशान्ति को, हृयद में भरते हुए, उनके अमृत वचनों पर अडिग बनते हुए अन्तर्मुख हो जाओ … आनन्दमय बनते जाओ …
ॐ आनंद ! ॐ आनंद ! ॐ आनंद !



ॐ श्री सदगुरु परमात्मने नमः
सदगुरुदेव साथी-सगे सब स्वार्थ के हैं, स्वार्थ का संसार है निःस्वार्थ सदगुरुदेव हैं, सच्चा वही हितकार है ईश्वरकृपा होवे तभी, सदगुरुकृपा जब होये है सदगुरु कृपा बिनु ईश भी, नहीं मैल मन का धोय है निर्जीव सारे शास्त्र सच्चा मार्ग ही दिखलाय है दृढ़ ग्रन्थि की जड़ खोलने कि युक्ति नहीं बतलाय है निस्संग होने के सबब से ईश भी रुक जाय है गुरु गाँठ खोलन रीति तो, गुरुदेव ही बतलाय हैं गुरुदेव अदभुत रूप हैं, परधाम माहीं विराजते उपदेश देने सत्य का, इस लोक में आ जावते दुर्गम्य का अनुभव करा, भय से परे ले जावते परधाम में पहुँचाय कर, स्वराज्यपद दिलवावते छुड़वाय कर सब कामना, कर देय हैं निष्कामना सब कामनाओं का बता घर, पूर्ण करते कामना मिथ्या विषयसुख से हटा, सुखसिंधु देते हैं बता सुखसिंधु जल से पूर्ण अपना, आप देते हैं जता तन इन्द्रियाँ मन बुद्धि सब, संबंध छुड़वा देय हैं अणु ग्रहण करत सूर्य ज्युँ, जग माहीं चमका देय है आधार सारे विश्व का, सबका ही जो अध्यक्ष है सो ही बनाते जीव को, ब्रह्माण्ड जिसका साक्ष है इक तुच्छ वस्तु छीनकर, आपत्तियाँ सब मेट कर प्याला पिला कर अमृत का, मर को बनाते हैं अमर सब भाँति से कृत कृत्य कर, परतंत्र को निज तंत्र कर अधिपति रहित देते बना, भय से छुड़ा करते निड़र कंचन बनाते देह को, रज मैल सब हर लेय हैं ले कांच कच्चा हाथ से, कौश्टब मणि दे देय हैं इस लोक से परलोक से, सब कर्म से सब धर्म से परतत्त्व में पहुँचाय कर, ऊँचा करे हैं सर्व से सदगुरु जिसे मिल जाये सो ही, धन्य है जग मन्य है सुर सिद्ध उसको पूजते, ता सम न कोऊ अन्य है अधिकारी हो गुरुदेव से, उपदेश जो नर पाय है भोला! तरे संसार से, नहीं गर्भ में फ़िर आय है ईश्वर कृपा से, गुरु कृपा से, मर्म मैंने पा लिया ज्ञानाग्नि में अज्ञान कूड़ा, भस्म सब है कर दिया अब हो गया है स्वस्थ सम्यक, लेष नहीं भ्रांत है शंका हुइ निर्मूल सब, अब चित्त मेरा शांत है

2 comments:

शोभा said...

अच्छा लिखा है। स्वागत है आपका।

36solutions said...

सत्‍य तस्‍मै श्री गुरूवे: नम: ।


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गुरतुर गोठ : छत्तीसगढी